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कविता

लौट जाओ बेटी

सर्वेश सिंह


गुरुत्व था तुम्हारा बचपन
इस घर के लिए 
हाथों से पकड़ जिसे
घूम लिया पृथ्वी और आकाश
पर लपेट हर बार तुमने खींच लिया 
अपने मोह के परेते में
लेकिन घर जीवन की हद नहीं है मेरी बेटी
और इसीलिए अब जबकि तुम बड़ी हो गई हो
तो मैं चाहता हूँ कि तुम्हें दूँ
एक लंबी हरी धरती
और एक असीम खुला आसमान
बढ़ने के लिए
उड़ने के लिए
पर दुविधा में हूँ
कि तुम्हे भेजूँ कहाँ मेरी बच्ची?
देखता हूँ इस शहर में हैं कड़कड़ाती हड्डियों सी सड़कें
और आवारा साँड़ से चौराहे
मोक्ष की इस नगरी में
स्वर्ग को जाता हर रास्ता
बजबजाते कीच और फूलमालाओं के लोथड़ों से होकर गुजरता है
मुक्ति की चाहना को किसी की आँख में देखते ही
यहाँ ईश्वर के दूतों की देह में उग आते हैं खूनी पंजे
और वे शरीर ही नहीं
आत्मा को भी नंगी कर
अपनी धार्मिक वासना की प्यास खोज लेते हैं
पत्थरों की बिसात पर खुरची गई हर सुकुमार देह को देख
मैं सिहर उठता हूँ मेरी बच्ची  
हालाँकि हो सकता है कि इन रास्तों से बच-बचाकर
तुम अपनी मरजाद लेकर निकल भी आओ
पर इसी शहर की उन उन्मादी रातों को कैसे भूल जाऊँ
जिनमें आदमी, भेड़ियों में तब्दील हो जाता है
और मासूम बच्चियों तक को दबोच कर
गंगा की तलहटी में विलीन हो जाता है
कहते हैं कि वे भेड़िए उन तलहटियों में
उन बच्चियों की हड्डियों से भी मिटा लेते हैं
अपनी जीभ और उँगलियों की तृष्णा
और फिर उन्हें उसी गंगा में बहा देते हैं
फिर सुबह उन्ही पानियों में नहाकर
लोग स्वर्ग के रास्तों पर बढ़ जाते हैं
मंदिरों का यह शहर मुझे मुफीद नहीं लगता तुम्हारे लिए बेटी
तो क्या तुम्हें राजधानी दिल्ली भेज दूँ?
जहाँ डीयू और जेएनयू हैं!
यह खयाल अक्सर मुझे उत्साहित करता है बेटी 
पर इधर दिल्ली की बसों, चलती कारों, मेट्रो, और कैंपसों
और यहाँ तक की संसद से भी डर लगने लगा है मेरी बेटी
सुनते हैं कि दिल्ली के भेड़िए अब दिन के उजालों में भी शहर में घुस आते हैं
चलती कारों, बसों या किसी भी जगह को ये बिस्तरों में तब्दील कर देते हैं
वे लोहा लेकर शिकार को उतरते हैं
और सिखाते हैं मादाओं को मुक्ति और स्वतंत्रता को सहने का पाठ
और जिस्मों पर वे उन हथियारों से करते हैं वार
जिनका जिक्र पेनल कोड और संविधानों में कहीं नहीं है
और विडंबना देखो की पेट से खून की शिराएँ तक निकाल लेने वाले वे भेड़िए
अंत में बेदाग बरी हो जाते हैं
और चौसठ योगिनियों के मंदिर की भोंडी अनुकृति
वह संसद
करती रहती है, करती रहती है
जाति और मजहब पर बहसें
यह सब देख मुझे लगता है
कि तुम्हें दिल्ली भेजना
किसी इंद्रजाल में तुम्हे फँसाने जैसा है मेरी बच्ची
और इसीलिए इधर कुछ दिनों मैंने यह भी सोचा 
कि तुम्हें देश से बाहर कहीं भेज दूँ
उधर, उत्तरी गोलार्ध की पश्चिमी हवाओं में
जैसे की मध्य पूर्व
जहाँ कुरआन की आयतें और इस्लाम की शांति है
खुदा की निगाहबानी में
गुनाहगारों का साया भी
शायद तुम्हारे नजदीक न आ पाए
पर उन खजूरी रेगिस्तानों में आजकल
यह न जाने क्या पागलपन चल रहा हैं मेरी बच्ची?
नौनिहालों के हाथों से बरस रही हैं एके-47 की गोलियाँ
आत्मघाती बमों से सिसक रही है रेत
जंजीरों में बाँध बाजारों में बिक रही हैं सुंदर देह
और फिर उन्हें चींथा जा रहा है
अमेरिका और रूस से बदले के नाम पर
मैं सहम रहा हूँ मेरी बेटी
तुम्हे जिहाद के रैंप पर क्या कैटवाक कर बनाना है मुझे?  
या धरती की बहत्तर हूरों में से एक बनता तुम्हें देखता रहूँ मैं?
नहीं मेरी बेटी
तुम्हे वहाँ भी भेजना दरअसल तुम्हे जिंदा मार देना है
क्योंकि खुदा वहाँ किसी आत्मघाती हमले में जमींदोज हो चुका है
और पवित्र कुरआन की आयतें
धमाकों के बीच
मृतपाय मनुष्यता के शोकगीत गा रही हैं
खोजते-खोजते अब थक गया हूँ मेरी बच्ची
लगता है कोई शहर, कोई देश
अब नहीं बचा
कि जहाँ मैं तुम्हे भेज सकूँ
उड़ने को
बढ़ने को  
चाहे दिल्ली हो या मद्रास
चाहे अमेरिका हो या फ्रांस
तुम्हे एक हरी धरती
और एक साफ आसमान देने में
तुम्हारा यह पिता शायद अक्षम है 
पर हाँ,
एक संभावना अब भी बची है मेरी बच्ची
भले ही थोड़ी सी ही 
पर अभी भी शायद एक जगह
हमेशा की ही तरह 
आदमी से बची रह गई है
और वह है - गर्भ
तुम्हारी माँ का 
सजल और स्निग्ध
अच्छा होगा कि लौट जाओ मेरी बच्ची
उसी अँधेरी कोख में
लौट जाओ मेरी तितली
उसी हिरण्यगर्भ में
लौट जाओ मेरी आत्मजा 
सृष्टि के उसी अधिष्ठान में
जहाँ की पवित्र शांति में
तुम्हारी प्राण-नाल जुड़ी है
तुम्हारी माँ के पेट से
हृदय से
मन से
लौट जाओ बेटी
स्वतंत्रता और गरिमा के उसी निर्जन में
जहाँ आदमी
उसका समाज
उसका धर्म
उसकी आसमानी किताबें
और उसके खुदा भी पहुँच नहीं सकते
कभी भी नहीं पहुँच सकते 
लौट जाओ मेरी बेटी
कि यहाँ धर्म, धर्म नहीं, अनाचार है
न्याय, न्याय नहीं, बलात्कार है
खुदा, खुदा नहीं
धरती पर होता हुआ सनातन व्यभिचार है
लौट जाओ मेरी बेटी 
कि पिता, अब पिता नहीं
एक नीरीह कविता है
और कविता, कविता नहीं
बस, एक बेबस तर्पण है 
ॐ, न तातो न माता न बंधुः न दाता।
न पुत्रो न पुत्री न भृत्यो न भर्ता।।
न जाया न विद्या न वृत्तिर्ममैव।
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि।।
 


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